संस्कार, ज्ञान और धर्म का संगम – विद्यानन्द गुरुकुलम्

विद्यानन्द गुरुकुलम् आचार्य प्रज्ञासागर जी के मार्गदर्शन और अथक प्रयासों से स्थापित हुआ है। यह गुरुकुल केवल एक शिक्षण संस्थान नहीं, बल्कि जैन धर्म, संस्कार और आध्यात्मिकता का केंद्र है। आचार्य प्रज्ञासागर जी ने अपने तप और संकल्प से इस गुरुकुल की स्थापना की, ताकि जैन समाज की भावी पीढ़ी को निःशुल्क शिक्षा, धार्मिक मार्गदर्शन और आध्यात्मिक उत्थान प्रदान किया जा सके। गुरुकुल में विद्यार्थियों को CBSE पाठ्यक्रम के साथ-साथ जैन धर्म की गहन शिक्षा दी जाती है। यहाँ न केवल आधुनिक शिक्षा पर जोर दिया जाता है, बल्कि धार्मिक और नैतिक मूल्यों को आत्मसात कर, विद्यार्थियों को एक श्रेष्ठ जैन जीवन जीने की प्रेरणा दी जाती है।

हमारे आदर्श

  • निःस्वार्थ सेवा – शिक्षा को सभी के लिए सुलभ बनाना।
  • संस्कार और अनुशासन – विद्यार्थियों को जैन धर्म और नैतिकता के अनुसार जीवन जीने की प्रेरणा देना।
  • ध्यान और साधना – आत्मसंयम, साधना और धार्मिक आचार-विचार को प्रोत्साहित करना।
  • धर्म और ज्ञान का संगम – आधुनिक शिक्षा और जैन परंपराओं का संतुलन बनाए रखना।

हमारे आदर्श

विद्यानन्द गुरुकुलम्, आचार्य प्रज्ञासागर जी की तपस्या का परिणाम है, जहाँ निःशुल्क शिक्षा, संस्कार और आध्यात्मिकता का संगम होता है। हमारा उद्देश्य जैन धर्म, नैतिकता और आत्मसंयम के साथ भावी पीढ़ी का निर्माण करना है।

हमारे साथ जुड़ें

प्रत्येक दिन 6 AM-12 PM,5 PM-9 PM
Vidyanand Gurukulam, Khera Kalan Rd
Nangli Puna, Delhi 110036

हमारा लक्ष्य

हम जैन विद्यार्थियों को निःशुल्क CBSE व धार्मिक शिक्षा प्रदान कर, उन्हें जैन धर्म के विद्वान, आचार्य और पुजारी बनने के लिए प्रशिक्षित करते हैं। संस्कार, साधना और ज्ञान के माध्यम से, हम समाज में धार्मिक चेतना जागृत करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

श्वेतपिच्छाचार्य श्री 108 विद्यानंद जी

परम पूज्य श्वेतपिच्छाचार्य श्री 108 विद्यानंद जी

परम पूज्य आचार्य 108 विद्यानंद जी मुनिराज 20वीं और 21वीं शताब्दी के महान दिगंबर जैन संतों में से एक थे, जिन्होंने जैन दर्शन, अध्यात्म, और अहिंसा के प्रचार-प्रसार में अभूतपूर्व योगदान दिया। वे अपने अद्वितीय बौद्धिक चिंतन, योग साधना, और भारतीय संस्कृति के उत्थान के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध थे।

जीवन परिचय एवं दीक्षा
जन्म: 22 सितंबर 1925, ग्राम शेडवाल, जिला बेलगांव,कर्नाटक
संन्यास गमन: छोटी आयु में ही सांसारिक मोह-माया को त्यागकर संन्यास ग्रहण किया।
मुनि दीक्षा: दिगंबर जैन परंपरा में सन 1946 में दीक्षित होकर कठोर तपस्या एवं आध्यात्मिक साधना का मार्ग अपनाया।
आचार्य पद: 1971 में उन्हें आचार्य पद से विभूषित किया गया। आप पर परम पूज्य गुरुदेव गुरुदेव की असीम कृपा रही है जिनसे आपने मुनि, उपाध्याय, एलाचार्य एवं परंपरा का आचार्य पद प्राप्त किया।
योगदान एवं विशेषताएँ
1. शास्त्रों में गहरी पकड़: उन्होंने जैन आगम, भारतीय दर्शन, न्यायशास्त्र, और सांस्कृतिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और उनके प्रचार-प्रसार में जीवन समर्पित किया।
2. योग एवं ध्यान: वे योग के महान ज्ञाता थे और उन्होंने जैन साधना को योग से जोड़कर उसका व्यावहारिक स्वरूप प्रस्तुत किया।
3. विद्वत्ता एवं प्रवचन: वे एक प्रखर वक्ता थे और उन्होंने जैन धर्म के सिद्धांतों को तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया, जिससे आधुनिक समाज भी उनसे प्रभावित हुआ।
4. सामाजिक योगदान: वे अहिंसा, शाकाहार, और नैतिकता के प्रचारक थे और उन्होंने विश्व में शांति और सद्भाव का संदेश दिया।
5. शिक्षा एवं साहित्य: उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की और जैन दर्शन को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया। समाज में प्रभाव
वे भारतीय दर्शन और संस्कृति के प्रमुख स्तंभों में से एक थे, जिनकी विद्वत्ता का सम्मान देश-विदेश में किया गया। अपने जीवन काल में अनेकों राष्ट्रीय स्तर के बड़े बड़े कार्यक्रम समाज एवं सरकार के सहयोग से किए।
उनके प्रवचनों से हजारों लोगों ने अहिंसा, संयम और आध्यात्मिक जीवन की प्रेरणा ली।
उन्होंने जैन समाज को संगठित करने और युवा पीढ़ी को धर्म के प्रति आकर्षित करने के लिए अनेक प्रयास किए।
महाप्रयाण
आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज ने अपने महान आध्यात्मिक जीवन के उपरांत 22 सितम्बर 2019 में समाधि मरण (सल्लेखना) द्वारा संसार से विदा ली।
उनका जीवन एक प्रकाशस्तंभ के समान था, जिसने समाज को धर्म, करुणा, और सत्य की राह दिखाई। वे आज भी अपने उपदेशों और शिक्षाओं के माध्यम से जीवित हैं और धर्म के पथिकों को मार्गदर्शन प्रदान कर रहे हैं

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